शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

ब्रिटिश साम्राज्य खेल २०१०

कॉमन वैल्थ गेम में खेल का तो मालूम नहीं मगर कॉमन वेल्थ की लूट की धूम मची है! इसमें हर आदमी की पौ बारह है ठेकेदार से लेकर नेताओ तक! मगर कमाल नेताओ के खेल का अजब है जिसमे मोटी मलाई नेताओ के हिस्से और सजा केवल ठेकेदारों और नौकरशाहों को, इससे सजा आगे बढ़ी तो नेताओ के खाशम खाश चमचो तक! इस देश के न्याय की परम्परा भी निराली है, जहाँ नेताओ को हर गुनाह माफ हैं! यहाँ भ्रष्टाचार नेताओ का हॉलमार्क है और घोटालो में आकंठ डूबने के बाद ही नेता खांटी नेता कहलाता है!
दरअसल इन खेलों की बुनियाद का दर्शन ही लूट पर टिका है ! इन खेलों के आयोजन कर्ता से लेकर भागीदार तक वो देश हैं जो कभी अंग्रेजो के गुलाम रहे हैं और आज भी हेन तेन उनकी गुलामी को सत्यापित करते रहते हैं! यही वजह है कि इन खेलो की शुरुआत ब्रिटिश महारानी के दरवाजे पर नतमस्तक होने से ही होती है ! सैंकड़ो सालो तक दुनिया पर अपनी लूट का परचम लहराने वाला देश जिन खेलों की अगुवाई कर रहा हो, वहां जाहिर है खेल नहीं लूट का खेल ही चलेगा ! आज कॉमन वेल्थ गेम के नाम से पहचाने जाने वाले इस खेल की शुरुआत १९३० में ब्रिटिश साम्राज्य खेल नाम से हुई थी तो १९५४ में बदल कर ब्रिटिश साम्राज्य एवं कॉमनवेल्थ खेल हो गए ! जो १९७८ तक इसी नाम से जाने जाते रहे १९७८ में इन खेलो का नाम बदल कर कॉमनवेल्थ गेम हो गया! अब साम्राज्यवादी लूटेरे से मशाल लेकर खेलने की बाध्यता वाले गुलाम देश इस खेल से कौन सा दार्शनिक सन्देश ले सकते हैं !
साम्राज्यवादी लूटेरे से प्रेरणा और आदेश लेकर शुरू होने वाले खेल का दर्शन साफ है तो सन्देश भी! अब यदि भारतीय नेताओ के मन माफिक इस खेल में देश को क्या मिलेगा कॉमन वेल्थ की लूट या खेलों में उपलब्धि ! बहरहाल मामला केवल लूट का भी नहीं है, इस के नतीजो को जानना है तो उन गरीब झुग्गी वासियों से पूछें जिन्होनो ने खेलों की तैयारियों में अपना घर भी खो दिया, वो रेहड़ी पटरी वाले जो दिल्ली के सौंदर्यकरण का शिकार बने, वो बच्चे जो कानून और जागरूक नागरिको की आँखों से बच कर आज भी स्टेडियमों में बालमजदूरी कर रहे हैं! इसके अलावा भी इस खेल की मार के अनेक अनछुए आयाम हैं! आम आदमी को इस खेल से क्या हासिल यह सवाल अब पूछा जाना चाहिए और इसका पुरजोर विरोध भी होना चाहिए !

शनिवार, 17 जुलाई 2010

भारत-पाक वार्ता

दोस्ती की कोशिशो में कड़वाहट का एंगल ही पडोसिओं की बेचारगी और मजबूरी की कहानी बयाँ कर रहा है ! एक की मजबूरी २६/११ के हवाले से आतंकवाद को साधने की तो दूसरा कश्मीर राग में इतना निपुण हो चुका है कि उसे दूसरी कोई भाषा और संवाद आता ही नहीं है! बावजूद तमाम तल्खिओं के दोनों के सामने दोस्ती करने की मजबूरिया हैं, समझा जा सकता है दोनों की दुश्मनी किसके सामरिक और व्यापारिक हितो को नुकसान पंहुचा सकती है!